अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी रवीश कुमार की नजर में।

मैं आज क्यों लिख रहा हूं, अर्णब की गिरफ्तारी के तुरंत बाद क्यों नहीं लिखा? आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला संगीन है लेकिन सिर्फ नाम भर आ जाना काफी नहीं होता है। नाम आया है तो उसकी जांच होनी चाहिए और तय प्रक्रिया के अनुसार होनी चाहिए। एक पुराने केस में इस तरह से गिरफ्तारी संदेह पैदा करती है। महाराष्ट्र पुलिस को कोर्ट में या पब्लिक में स्पष्ट करना चाहिए कि क्या प्रमाण होने के बाद भी इस केस को बंद किया गया था? क्या राजनीतिक दबाव था? तब हम जान सकेंगे कि इस बार राजनीतिक दबाव में ही सही, किसी के साथ इंसाफ़ हो रहा है। अदालतों के कई आदेश हैं। आत्महत्या के लिए उकसाने के ऐसे मामलों में इस तरह से गिरफ्तारी नहीं होती है। कानून के जानकारों ने भी यह बात कही है। इसलिए महाराष्ट्र पुलिस पर संदेह के कई ठोस कारण बनते हैं। जिस कारण से पुलिस की कार्रवाई को महज़ न्याय दिलाने की कार्रवाई नहीं मानी जा सकती। भारत की पुलिस पर आंख बंद कर भरोसा करना अपने गले में फांसी का फंदा डालने जैसा है। झूठे मामले में फंसाने से लेकर लॉक अप में किसी को मार मार कर मार देने, किसी ग़रीब दुकानदार से हफ्ता वसूल लेने और किसी को भी बर्बाद कर देने का इसका गौरवशाली इतिहास रहा है। पेशेवर जांच और काम में इसका नाम कम ही आता है। इसलिए किसी भी राज्य की पुलिस हो उसकी हर करतूत को संंदेह के साथ देखा जाना चाहिए। ताकि भारत की पुलिस ऐसे दुर्गुणों से मुक्त हो सके और वह राजनीतिक दबाव या अन्य लालच के दबाव में किसी निर्दोष को आतंकवाद से लेकर दंगों के आरोप में न फंसाए। अर्णब गोस्वामी के केस में कहा जा रहा है कि महाराष्ट्र की पुलिस बदले की भावना से कार्रवाई कर रही है। ग़लत नहीं कहा जा रहा है। क्या दिल्ली पलिस और यूपी की पुलिस बदले की भावना से कार्रवाई नहीं करती है? अर्णब गोस्वामी ने कभी अपने जीवन में हमारी तरह ऐसा पोज़िशन नहीं लिया है। मुझे कुछ होगा तो अर्णब गोस्वामी एक लाइन नहीं बोलेंगे। अगर पुलिस किसी को दंगों के झूठे आरोप में फंसा दे तो अर्णब गोस्वामी पहले पत्रकार होंगे जो कहेंगे कि बिल्कुल ठीक है। पुलिस पर संदेह करने वाले ही ग़लत हैं। फिर भी एक नागरिक के तौर आप भी अर्णब के केस में पुलिस के बर्ताव का सख़्त परीक्षण कीजिए ताकि सिस्टम दबाव और दोष मुक्त बन सके। इसी में सबका भला है। डॉ कफ़ील ख़ान पर अवैध रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून लगा कर छह महीने बंद रखा गया। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा था कि अवैध रूप से रासुका लगाई गई है। उक्त अधिकारी के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हुई है। अर्णब गोस्वामी से लेकर गृह मंत्री अमित शाह से लेकर तमाम मंत्री और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक ने इस नाइंसाफी पर कुछ नहीं कहा। भारत में किनके राज में प्रेस की स्वतंत्रता अभी खत्म होकर मिट्टी में मिल चुकी है यह बताने की ज़रूरत नहीं है। आपको एक लाख बार बता चुका हूं। प्रेस की स्वतंत्रता की बात करने वाले मंत्रियों के प्रधानमंत्री ने आज तक एक प्रेस कांफ्रेंस नहीं की है। बिल्कुल अन्वय नाइक और कुमुद नाइक की आत्महत्या के मामले में इंसाफ मिलना चाहिए। अन्वय नाइक की बेटी की कहानी बेहद मार्मिक है। इस बात की जांच आराम से हो सकती है कि अर्णब गोस्वामी ने अन्वय नाइक से स्टुडियो बनाकर पैसे क्यों नहीं दिए? 80 लाख से ऊपर का काम है तो कुछ न कुछ रसीदी सबूत भी होंगे। अन्वय नाइक की बेटी का कहना सही है कि कोई भी कानून से ऊपर नहीं होना चाहिए लेकिन कानून को भी मर्यादा से ऊपर नहीं होना चाहिए। जांच की निष्पक्षता की मर्यादा अहम है। तभी लगेगा कि पारदर्शिता के साथ न्याय हो रहा है। राजनीतिक दबाव में केस का खुलना और केस का बंद होना ठीक नहीं है। जब एनडीटीवी पर छापे पड़ रहे थे और एक चैनल को डराया जा रहा था तब अर्णब का कैमरा बाहर लगा था और लिंचमैन की तरह कवर किया जा रहा था। उनके कवरेज में एक लाइन प्रेस की स्वतंत्रता पर नहीं थी। उनका रिपोर्टर डॉ रॉय के घर की दीवार फांदने का प्रयास कर रहा था। बीजेपी के मंत्री प्रवक्ता मेरा बहिष्कार करते हैं। एन डी टी वी की सोनिया वर्मा सिंह ने ट्विट कर अर्णब की गिरफ्तारी की निंदा की है। एनडीटीवी के अन्य सहयोगियों ने अर्णब की गिरफ्तारी की निंदा की है। ये फर्क है। जब 2016 में एन डी टी वी इंडिया को बैन किया जा रहा था तब प्रेस क्लब में पत्रकार जुटे थे। आप पूछ सकते हैं कि अर्णब और उनके बचाव में उतरे मंत्री लोग क्या कर रहे थे। जब विपक्ष के नेताओं पर छापे की आड़ में हमले होते हैं अर्णब हमेशा जांच एजेंसियों की साइड लेते हैं। अर्णब ने मोदी सरकार पर क्या सवाल उठाए हैं,बेरोज़गारी से लेकर किसानों के मुद्दे कितने दिखाए गए हैं यह सब दर्शकों को पता है। उल्टा अर्णब गोस्वामी सरकार पर उठाने वालों को नक्सल से लेकर राष्ट्रविरोधी कहते हैं। भीड़ को उकसाते हैं। झूठी और अनर्गल बाते करते हैं। वे कहीं से पत्रकार नहीं हैं। उनका बचाव पत्रकारिता के संदर्भ में करना उनकी तमाम हिंसक और भ्रष्ट हरकतों को सही ठहराना हो जाएगा। अर्णब की पत्रकारिता रेडियो रवांडा का उदाहरण है जिसके उद्घोषक ने भीड़ को उकसा दिया और लाखों लोग मारे गए थे। अर्णब ने कभी भीड़ की हिंसा में मारे गए लोगों का पक्ष नहीं लिया। पिछले चार महीने से अपने न्यूज़ चैनल में जो वो कर रहे हैं उस पर अदालतों की कई टिप्पणियां आ चुकी हैं। तब किसी मंत्री ने क्यों नहीं कहा कि कोर्ट अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला कर रहा है? जबकि मोदी राज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाओं को जिनती बार उभारा गया है उतना किसी सरकार के कार्यकाल में नहीं हुआ। हर बात में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा बताई और दिखाई जाती है। एक बार अर्णब हाथरस केस में योगी की पुलिस को ललकार कर देख लेते, मुख्यमंत्री योगी को ललकार कर देख लेते जिस तरह से वे मुख्यमंत्री उद्धव को ललकारते हैं तो आपको अंतर पता चल जाता कि कौन सी सरकार संविधान का पालन कर रही है। उद्धव ठाकरे ने प्रचुर संयम का परिचय दिया है और उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओ ने भी जिनकी एक छवि मारपीट की भी रही है। कई हफ्तों से अर्णब बेलगाम पत्रकारिता की हत्या करते हुए हर संवैधानिक मर्यादा की धज्जियां उड़ा रहे थे। पत्रकार रोहिणी सिंह ने ट्विट किया है कि यूपी में पत्रकारों के खिलाफ 50 से अधिक मामले दर्ज हुए हैं। क्या अर्णब में साहस है कि वे अब भी योगी सरकार को ललकार दें इस मसले पर। जो आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात कर रहे हैं वो सीमा की बात करने लगेंगे और अर्णब पर रासुका लगा दी जाएगा डॉ कफील ख़ान की तरह। गौरी लंकेश की हत्या के मामले को अर्णब ने कैसे कवर किया था? या नहीं किया था? द वायर के संस्थापक हैं सिद्धार्थ वरदराजन। अर्णब गोस्वामी सिद्धार्थ वरदराजन के बारे में क्या क्या कहते रहे हैं आप रिकार्ड निकाल कर देख सकते हैं मगर सिद्धार्थ वरदराजन ने उनकी गिरफ्तारी में पुलिस की भूमिका को लेकर सवाल उठाए हैं। निंदा की है। उसी तरह से कई ऐसे लोगों ने की है। अर्णब के पक्ष में उतरे बीजेपी की मंत्रियों और समर्थकों की लाचारी देखिए। वे सुना रहे हैं कि कहां गए संविधान की बात करने वाले। पत्रकार रोहिणी सिंह ने एक जवाब दिया है राकेश सिन्हा को। संविधान की बात करने वालों को आपने जेल भेज दिया है। कुछ को दंगों के आरोप में फंसा दिया है। इनकी समस्या ये है कि जिन्हें नक्सल कहते हैं, देशद्रोही कहते हैं उन्हीं को ऐसे वक्त में खोजते हैं। इस बात के अनेक प्रमाण हैं कि कई लोगों ने एक नागरिक के तौर पर अर्णब की गिरफ्तारी की प्रक्रिया को लेकर सवाल उठाए हैं। उन्होंने यह फर्क साफ रखा है कि अर्णब पत्रकार नहीं है और न ही यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मामला है। न्यूज़ ब्राडकास्टर्स एसोसिएशन ने भी निंदा की है जबकि अर्णब इसके सदस्य तक नहीं है। अर्णब ने हमेशा इस संस्था का मज़ाक उड़ाया है। क्या न्यूज़ ब्राडकास्टर्स एसोसिएशन किसी ऐसे छोटे चैनल के पत्रकार की गिरफ्तारी पर बोलेगा जो उसका सदस्य नहीं है? ज़ाहिर है केंद्र सरकार अर्णब के साथ खड़ी है। अर्णब केंद्र सरकार के हिस्सा हो चुके हैं। अर्णब पत्रकार नहीं हैं। इसे लेकर किसी प्रकार का संदेह नहीं होना चाहिए। पत्रकारिता के हर पैमाने को ध्वस्त किया है। जिस तरह से पुलिस कमिश्नर को ललकार रहे थे वो पत्रकारिता नहीं थी। मैंने कल इस मामले पर कुछ नहीं लिखा क्योंकि प्राइम टाइम के अलावा कई काम करने पड़ते हैं। मैं लंबा लिखता हूं इसलिए भी टाइम चाहिए होता है। जब गिरफ्तारी की ख़बर आई तो मैं व्हाट्स एप पर था। फिर तुरंत कपड़े धोने चला गया। नील डालने के बाद भी बनियान में सफेदी नहीं आ रही थी। उससे जूझ रहा था तभी किसी का फोन आया कि चैनल खोलिए अर्णब गिरफ्तार हुए हैं। मैंने कहा कि उन्हीं जैसौं के कारण तो मेरे घर में न्यूज़ चैनल नहीं खुलता है। ख़ैर जब बनियान धोने के बाद पंखे की सफाई के लिए ड्राईंग रूम में आया तो चैनल खोल दिया। पंखे पर जमी धूल आंखों में गिर रही थी और मीडिया पर जमी धूल चैनल पर दिखने लगी। वैेसे कुछ दिन पहले फेसबुक पर रिपब्लिक चैनल के मामले में एडिटर्स गिल्ड की प्रतिक्रिया पोस्ट की थी कि किसी एक पर आरोप है तो आप पूरे गांव पर मुकदमा नहीं कर सकते। लेकिन मैं अर्णब का घर देखकर हैरान रह गया। रोज़ 6000 शब्द टाइप करके मैं गाज़ियाबाद के उस फ्लैट में रहता हूं जिसमें कुर्सी लगाने भर के लिए बालकनी नहीं है। अर्णब का घर कितना शानदार है। ईर्ष्या से नहीं कह रहा। मुझे किसी का भी अच्छा घर अच्छा लगता है। एक रोज़ किसी अमीर प्रशंसक ने घर आने की ज़िद कर दी और आते ही बच्चों के सामने कह दिया कि बस यही घर है आपका। हम तो सोचे कि आलीशान फ्लैट होगा। एक मोहतरमा तो रोने लगीं कि मेरा घर ले लीजिए। कोरोना के कारण जब घर से एंकरिंग करने लगा तो मेरे घर में झांकने लगे। उन्हें लगा कि रवीश कुमार शाहरूख़ ख़ान है। जल्दी उन्हें मेरे घर की दीवारों से निरशा हो गई। मैं ठीक ठाक कमाता हूं और किसी चीज़ की कमी नहीं है। मुझे अपना घर बहुत अच्छा लगता है। मेरी तेरह साल पुरानी कार को देखकर कई बार लोगों को लगा कि किसे बुला लिया अपनी महफिल में। वैसे ईश्वर ने सब कुछ दिया है। लोगों ने इतना प्यार दे दिया कि सौ फ्लैट कम पड़ जाएं उसे रखने के लिए। मैं अर्णब के शानदार घर के विजुअल के सामने असंगठित क्षेत्र के एक मज़दूर की तरह सहमा खड़ा रह गया। मैं क्या बोलता, मेरे बोले का कोई मोल है भी या नहीं। एक अदना सा पत्रकार एक चैनल के मालिक के लिए बोले, यह मालिकों का अपमान है। मैं तो बस अर्णब के घर की ख़ूबसूरती में समा गया। कल्पनाओं में खो गया। ड्राईंग रूम की लंबी चौड़ी शीशे की खिड़की के पार नीला समंदर बेहद सुंदर दिख रहा था। अरब सागर की हवाएं खिड़की को कितना थपथपाती होंगी। यहां तो क़ैदी भी कवि हो जाए। मुझे इस बात की खुशी हुई कि अर्णब के दिलो दिमाग़ में जितना भी ज़हर भरा हो घर कैसा हो, कहां हो, कैसे रहा जाए इसका टेस्ट काफी अच्छा है। उसमें सौंदर्य बोध है। बिल्कुल किसी नफ़ीस रईस की तरह जो अपने टी-पॉट की टिकोजी भी मिर्ज़ापुर के कारीगरों से बनवाता हो। मैं यकीन से कह सकता हूं कि अर्णब के अंदर सुंदरता की संभवानाएं बची हुई हैं। लेकिन सोचिए रोज़ समंदर के विशाल ह्रदय का दर्शन करने वाले एंकर का ह्रदय कितना संकुचित और नफ़रतों से भरा है। अर्णब गोस्वामी जब भी जेल से आएं, अव्वल तो पुलिस उन्हें तुरंत रिहा करे, मैं यही कहूंगा कि कुछ दिनों की छुट्टी लेकर अपने इस सुंदर घर को निहारा करें। इस सुंदर घर का लुत्फ उठाएं। सातों दिन कई कई घंटे एंकरिंग करना श्रम की हर अवधारणा का अश्लील उदाहरण है। अगर इस घर का लुत्फ नहीं उठा सकते तो मुझे मेहमान के रूप में आमंत्रित करें। मैं कुछ दिन वहां रहूंगा। सुबह उनके घर की कॉफी पीऊंगा। वैसे अपने घर में चाय पीता हूं लेकिन जब आप अमीर के घर जाएं तो अपना टेस्ट बदल लें। कुछ दिन कॉफी पर शिफ्ट हो जाएं। और हां एक चीज़ और करना चाहता हूं। उनकी बालकनी में बैठकर अरब सागर से आती हवाओं को सलाम भेजना चाहता हूं और बॉर्डर फिल्म का गाना फुल वॉल्यूम में सुनना चाहता हूं। ऐ जाते हुए लम्हों, ज़रा ठहरो, ज़रा ठहरो….मैं भी चलता हूं... ज़रा उनसे मिलता हूं... जो इक बात दिल में है उनसे कहूं तो चलूं तो चलूं…. और हां पुलिस की हर नाइंसाफी के खिलाफ हूं। चाहें लिखू या न लिखूं।

मैं नीर भरी दु:ख की बदरी। (महादेवी वर्मा)

मैं नीर भरी दुख की बदली! स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा क्रन्दन में आहत विश्व हँसा नयनों में दीपक से जलते, पलकों में निर्झारिणी मचली! मेरा पग-पग संगीत भरा श्वासों से स्वप्न-पराग झरा नभ के नव रंग बुनते दुकूल छाया में मलय-बयार पली। मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल चिन्ता का भार बनी अविरल रज-कण पर जल-कण हो बरसी, नव जीवन-अंकुर बन निकली! पथ को न मलिन करता आना पथ-चिह्न न दे जाता जाना; सुधि मेरे आगन की जग में सुख की सिहरन हो अन्त खिली! विस्तृत नभ का कोई कोना मेरा न कभी अपना होना, परिचय इतना, इतिहास यही- उमड़ी कल थी, मिट आज चली!

* गैलरी *



*पिता जिद कर रहा था कि उसकी चारपाई गैलरी में डाल दी जाये।*
*बेटा परेशान था।*

*बहू बड़बड़ा रही थी..... कोई बुजुर्गों को अलग कमरा नही देता। हमने दूसरी मंजिल पर कमरा दिया.... सब सुविधाएं हैं, नौकरानी भी दे रखी है। पता नहीं, सत्तर की उम्र में सठिया गए हैं?*

*पिता कमजोर और बीमार हैं....*

*जिद कर रहे हैं, तो उनकी चारपाई गैलरी में डलवा ही देता हूँ। निकित ने सोचा। पिता की इच्छा की पू्री करना उसका स्वभाव था।*

*अब पिता की चारपाई गैलरी में आ गई थी।*
*हर समय चारपाई पर पडे रहने वाले पिता*
*अब टहलते टहलते गेट तक पहुंच जाते ।*

*कुछ देर लान में टहलते । लान में खेलते*
*नाती - पोतों से बातें करते ,*
*हंसते , बोलते और मुस्कुराते ।*

*कभी-कभी बेटे से मनपसंद खाने की चीजें*
*लाने की फरमाईश भी करते ।*

*खुद खाते , बहू - बटे और बच्चों को भी खिलाते ....*
*धीरे-धीरे उनका स्वास्थ्य अच्छा होने लगा था।*

*दादा !  मेरी बाल फेंको... गेट में प्रवेश करते हुए निकित ने अपने पाँच वर्षीय बेटे की आवाज सुनी,* 

*तो बेटा अपने बेटे को डांटने लगा...:*

*अंशुल बाबा बुजुर्ग हैं, उन्हें ऐसे कामों के लिए मत बोला करो।*

*पापा ! दादा रोज हमारी बॉल उठाकर फेंकते हैं....
अंशुल भोलेपन से बोला।*

*क्या...  "निकित ने आश्चर्य से पिता की तरफ देखा ?*

*पिता !  हां बेटा तुमने ऊपर वाले कमरे में सुविधाएं तो बहुत दी थीं।*

*लेकिन अपनों का साथ नहीं था। तुम लोगों से बातें नहीं हो पाती थी।*

*जब से गैलरी मे चारपाई पड़ी है, निकलते बैठते तुम लोगों से बातें हो जाती है।* *शाम को अंशुल -पाशी का साथ मिल जाता है।*

*पिता कहे जा रहे थे  और निकित सोच रहा था.....*

*बुजुर्गों को शायद भौतिक सुख सुविधाऔं*
*से ज्यादा अपनों के साथ की जरूरत होती है....।*

*बुज़ुर्गों  का सम्मान करें ।*
 *यह हमारी धरोहर है ...!*

*यह वो पेड़ हैं,  जो थोड़े कड़वे है,  लेकिन इनके फल बहुत मीठे है,  और इनकी छांव का कोई मुक़ाबला नहीं !*

    _*लेख को पढ़ने के उपरांत अन्य समूहों में साझा अवश्य करें...!!*

 अपने बुजुर्गों का खयाल हर हाल में अवश्य र
*(((( एक बुजुर्ग की दुवा हैं...। ))))*
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अजनबी दोस्त

अजनबी दोस्त
हवा में उठती खुशबूओं को अपने दामन में समेट कर एक सादगी की मूरत बनकर किसी के दिल पर दस्तक देना क्या यह अपने पन का अहसास नहीं है?
                                              फिर भी दोस्त का अजनबी बनना क्या दिल पर सितम नहीं?

                        खैर खुदा की बनाई ऐ अनमोल मूरत ज्यादा कुछ नहीं बस आपकी आँखो से दोस्ती का नाम लेना चाहते हैं । बस इतना सा ख्वाब है, हम तो बस इतना ही करेंगे कि प्यार में कभी किसी का दिल मत तोडना क्योंकि बेहद तकलीफ होती है जब कुछ कोमल चीज टूटती है तो,
                                 


  💓💜💛💙💚  दिल। 💝💔💕💖💗💘💝💞💟  तोडना आसान है लेकिन जोडना बेहद मुश्किल,, पर  नामुमकिन नहीं।
             सो SO हमें प्यार करोगे या दोस्ती

आप पे छोड़ते है।
       💙💔💚💕💛💖💜💗दिल दोस्ती etc.. .💘💓💗💟💞💝

स्वच्छ भारत अभियान स्वर्णिम स्वप्न और एक सकारात्मक सोच और वर्तमान राजनीति


  स्वच्छ भारत अभियान आजकल ये एक ऐसा नाम है जो किसी का भी अनसुना नहीं है,
    दोस्तों पहली बात तो ये है कि ये मेरा लिखने का पहला  प्रयास है सो कोई mistake ho jaye to sorry bhai log..
      
  Dosto ye  abhiyan suru Hua to SB citizens ko lga tha ki koi yojna aai h jo des ke hit me h or Modi zee ne kuchh alag ht kr kuchh krne ko kosis ki h. But dhire- dhire jb ise desh ke rajnetao ne apne surkhiyon ka jriya man na suru kr diya to uski puri Hawa nikal gyi. Frnds mai apko btana chahta hu ki ye ek aisa bhaiyan h jo नागरिकों की भावनाओं से जुङा हुआ है, और मैं समझता हूँ कि इस देश के हर नागरिक को अपना कर्तव्य समझना चाहिए कि मेरा भारत महान हमेशा स्वच्छ रहे । और जिस इन्सान की feeling's, देश की स्वच्छता से नहीं जुङी हो, जो इन्सान इसे अपना कर्तव्य नहीं समझता,,,, मैं ये मानता हूँ कि वो इस देश का नागरिक नहीं है।
  
        हाँ मेरे जागरूक नागरिक बन्धु जनों ये एक दम सही बात लिखी है मैंने क्योंकि "स्वच्छ भारत अभियान"
सुनने में किसी  मिलियन डॉलर खुशी से कम नहीं है, लेकिन जब  हम जमीनी स्तर पर देखें तो हमें ये देखने को मिलेगा कि यह अभियान जिसका नाम इतना अच्छा रखा गया है जिसे यदि सब लोग अपनी भावनाओं से लिंक कर लेते तो देश की तस्वीर ही बदल जाती, ये केवल मात्र एक सुर्खियां बटोरने का एक जरिया बन गया है ।

अब सवाल उठता है कि कैसे?????

इसका जवाब आप और हम सब जानते हैं क्या है कि कुछ लोग दो-चार झाडू लेते और कुछ मीडिया वालों को बुलाया जाता है फिर एक ऐसी जगह का चुनाव होता है जहाँ से सुर्खियां ज्यादा से ज्यादा मिले फिर सभी साथ मिलकर फोटो खिंचवाते है और वापस निकल लेते हैं । बस हो गया भारत स्वच्छ, ऐसी हो गयी है वर्तमान राजनीति। जब ये कन्फ़र्म हो जाता है कि सुर्खियां पा ली हैं तो सभी उस महत्वाकांक्षी योजना को भूल जाते हैं ।

दोस्तों एक जमाना था जब गांधी जी अपना बाथरूम खुद साफ करते थे लेकिन कभी भी कैमरे के सामने नहीं आये , क्योंकि  उनको सुर्खियों की जरूरत नहीं थी उनको देश की फिक्र थी, उन्होंने खुद चरखा चलना शुरू किया और पूरी life एक धोती और लकङी के सहारे  गुजार दी । और मैं जहाँ तक समझता हूँ उनके इसी सादा जीवन उच्च विचार वाली छवि के कारण ही पुरा विश्व आज भी एक संभ्रांत शख्सियत के रुप में उनको याद करता है आज भी वो लोगों के दिलों पर राज कर रहे है।

इसलिए मैं मेरे परमादरणीय एवं सम्माननीय नेताओं से ये आग्रह करता हूँ कि सुर्खियां बटोरना छोड़कर स्वच्छ मन से  अति सुन्दर अभियान पर थोडा ध्यान देने की कृपा करें ।    
     सबसे अंतिम बात मैं हम सबको इंगित करते हुए कहना चाहता हूँ कि आप और हम सब मिलकर खुद ही इतने "जागरूक और समझदार" बनें कि इस प्रकार के किसी भी अभियान की जरूरत ही ना पड़े ।मेरे भाइयों मैं यहाँ जागरूक और समझदार दोनों शब्दों का प्रयोग कर रहा हूँ और इनका प्रयोग क्यों कर रहा हूँ ये बताने की मेरे ख्याल से जरूरत नहीं है ।

धन्यवाद ।

🕉👣🕎पावन पर्व दीपावली 🕎👣🕉

पर्व है पुरुषार्थ का,
दीप के दिव्यार्थ का,

देहरी पर दीप एक जलता रहे,
अंधकार से युद्ध यह चलता रहे,

हारेगी हर बार अंधियारे की घोर-कालिमा,
जीतेगी जगमग उजियारे की स्वर्ण-लालिमा,

दीप ही ज्योति का प्रथम तीर्थ है,
कायम रहे इसका अर्थ, वरना व्यर्थ है,

आशीषों की मधुर छांव इसे दे दीजिए,
प्रार्थना-शुभकामना हमारी ले लीजिए!!

झिलमिल रोशनी में निवेदित अविरल शुभकामना
आस्था के आलोक में आदरयुक्त मंगल भावना!!!

                                                   अजय जेफ

सोचो कितने फसाद होते।

।।🌳हम नहीं चाहते थे कि 🍁फसाद होते 💜।।

समंदर सारे शराब के होते 

                            तो सोचो कितने फसाद होते। हकीकत हो जाते ख्वाब सारे 

                            तो सोचो कितने फसाद होते।। किसी के दिल में क्या है 

                            ये सिर्फ खुदा जानता है।

 दिल अगर बेनकाब होते 

                            तो सोचो कितने फसाद होते।। थी खामोशी फितरत हमारी 

                            तभी तो बरसों निभा गई। अगर हमारे मुंह में भी जवाब होते 

                            तो सोचो कितने फसाद होते।। हम अच्छे थे पर लोगों की 

                            नज़र में हमेशा बुरे ही रहे। कहिं हम सच में खराब होते 

                            तो सोचो कितने फसाद होते।।


कविता बहोत अच्छी है फेसबुक पे देखी बहुत खूबसूरत है